"रचना"
मेरे रंग मुझमें चढ़े जा रहे हैं,
नयन आँसुओं से भरे जा रहे हैं l
मैं निःशब्द होकर जिये जा रही हूँ,
जीते जी ओढ़े कफ़न जा रही हूँ l
मेरी भावना तुम समझोगे इक दिन,
मग़र न मिलूँगी मैं तुमको उस दिन l
मेरे क्षेत्र कर्मों का निष्पक्ष पावन,
मैं निर्मल , सरलतम बही जा रही हूँ l
प्रकृति की अनोखी मैं रचना निराली,
मैं तारों सी बिखरी हूँ आकाश थाली l
सुनो प्रभु ! न तज के मुझको जाना,
मुकद्दर लिखा है जो मुझको दिलाना l
जो राहें घिरी कंटकों से हैं हमारी,
प्रभु ! फूल उसमें तुम ही खिलाना l
धनुष इंद्र रंगीन से हो रहें हैं,
तपन में भी हम खिले जा रहें हैं l
भावों की सात्विक नदी बन के बहती,
बन करके कविता हूँ निःश्तब्ध रहती l
झर - झर सी निर्झर की बन बह रही हूँ,
मैं मूक होकर भी कुछ कह रही हूँ l
मैं पोटली हूँ प्रकृति रंग जिसमें,
परत दर परत मैं खुली जा रही हूँ l
रश्मि पाण्डेय
बिंदकी, फतेहपुर