गरीबी और भूख से हार गया कलमकार इलाज के आभाव में हुई मौत
गरीबी और भूख से हार गया कलमकार इलाज के आभाव में हुई मौत

बांदा। एक अच्छे कलमकार सौरभ श्रीवास्तव दीपू को असमय ही मौत ने निवाला बना लिया शनिवार के सवेरे निज निवास में उनका निधन हो गया कुछ समय से बीमार थे खाने के लाले होने के कारण इलाज का संकट समझा जा सकता है। उन पर शराब का दुर्गुण जानलेवा साबित हुआ। आज जागरण और हिंदुस्तान आदि अखबारों में बांदा से चित्रकूट और हमीरपुर तक सेवाएं दे चुके करीब 50 वर्षीय पत्रकार सौरभ श्रीवास्तव दीपू की मौत हो गई। कुछ साल पहले मां के न रहने पर पत्रकार दीपू को फक्त मुफलेसी ने आ घेरा, पिता पुलिस महकमें एक मुलाजिम थे उनके निधन के बाद मां की पेंशन से घर की गाड़ी चलती रही मां के निधन से पेंशन गई और गाड़ी को ब्रेक लग गया दो दुकानों का किराया बिजली बिल आदि चुकाने के बाद किसी तरह गुजर बसर चलता रहा उनकी साड़ी नही हुई थी माता पिता का पहले ही देहांत हो चुका था। भाइयों के कुछ सहयोग और इधर-उधर हाथ-पांव मार कर जैसे तैसे गुजारा होता रहा लेकिन गरीबी में बीमारी ने दस्तक दी तो हौसला टूट गया टूटे हौसले के साथ दीपू ने दम तोड़ दिया। अब सवाल समाज से - जब कोई पत्रकार दम तोड़ता है, तो एक कलम नहीं, पूरा समाज खामोश हो जाता है। और जब मौत की वजह पेट की भूख हो, तब ये मौत नहीं, हमारी सामूहिक संवेदनहीनता की पराकाष्ठा होती है। शनिवार की सुबह बांदा के युवा पत्रकार सौरभ श्रीवास्तव ‘दीपू’ ने अंतिम सांस ली। "उनकी मौत सिर्फ एक जीवन का अंत नहीं,बल्कि उस व्यवस्था की चीर-फाड़ है, जो पत्रकारों से आदर्श की उम्मीद तो रखती है, लेकिन उनके जीवनयापन की बुनियादी जरूरतों से आंखें चुरा"लेती है। दीपू की मौत भूख,तंगी और तिरस्कार का मिला-जुला परिणाम है l। एक ऐसा पत्रकार, जो कभी लोगों की आवाज़ बनता था,वो खुद दम तोड़ गया क्योंकि उसके घर में दो वक़्त की रोटी नहीं थी! पत्रकारों को अक्सर "चौथा स्तंभ" कहने वाले समाज और नेता,जब वही पत्रकार जिंदगी और मौत के बीच झूलता है,तो सब मौन हो जाते हैं! दीपू की मौत इस खामोशी का शोर बन गई है!एक ओर समाज उन्हें कर्तव्य की दुहाई देता है, दूसरी ओर उनकी आर्थिक हालत को "व्यक्तिगत समस्या" कहकर पल्ला झाड़ लेता है। ये कैसी विडंबना है? सरकारी योजनाएं, पत्रकार कल्याण निधि, बीमा, आपात सहायता,सभी सिर्फ कागज़ों तक सिमटी रहीं! बांदा जैसे ज़िले में जहां पत्रकार लगातार प्रशासनिक लापरवाही,भ्र्ष्टाचार और आम आदमी की समस्याओं को उजागर करते हैं, वहीं जब खुद पत्रकार संकट में होता है, तो न कोई अफसर आगे आता है, न कोई मंत्री,न कोई जनप्रतिनिधि। दीपू तो अब इस दुनिया में नहीं रहा। लेकिन वो बहुत कुछ छोड़ गया—एक जलता हुआ सवाल? जो हर उस व्यक्ति को झकझोरता है जो पत्रकारों को सिर्फ 'सेवा' के चश्मे से देखता है, पर उनके जीवन को जीने लायक नहीं बनाता! जो लोग पत्रकारों को आदर्शवाद, ईमानदारी और निस्वार्थ सेवा की कसौटी पर कसते हैं, क्या कभी उन्होंने सोचा कि एक पत्रकार के भी बच्चे होते हैं? घर होता है। बिजली का बिल आता है, रोटी पकाने के लिए आटा चाहिए, और शरीर चलाने के लिए भोजन। "क्या पत्रकार सिर्फ 'समाज सुधारक' हैं या इंसान भी।
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