"चाह"
लिख रही हूँ खुद को मैं,
संग तुन्हें भी लिख रही हूँ।
पर तुम्हारी ये कपटता,
नजदीक से मैं जानती हूँ।
है विवशता कि ये मेरी,
संसार में रहना मुझे है,
पर कपट परिपूर्णता,
मुझको तनिक भाता नहीं हैा
मैं नदी गम्भीर धारा,
अनवरत मैं बह रही हूँ ।
आदि से मैं अन्त में हूँ,
चाह प्रभु की कर रही हूँ।
है सतत ये खोज मेरी,
कौन सी वो शख्सियत है,
हो सतह ह्रदय में जिसके,
इन्सानियत की खान हो वो।
खोज की परिपूर्णता को,
निज ह्रदय में ही करूँगी ।
संग विषधर के भी रहकर,
निज ह्रदय चंदन करूँगी ।
मैं प्रबलता वायु की बन,
ज़िन्दगी शीतल करूँगी।
मैं गहनता भाव की बन,
प्रेम की कविता कहूँगी।
मैं निमीलित चक्षु को कर,
ध्यान तेरा धर रही हूँ।
लिख रही हूँ ख़ुद को मैं,
संग तुम्हें भी लिख रही हूँ।
रश्मि पाण्डेय
बिन्दकी फतेहपुर