क्या जीवन का मतलब है सहते जाना

क्यों

क्या जीवन  का  मतलब  है सहते जाना


?

या फ़िर चरैवेति के भाव साथ चलते जाना ?

'मन -गह्वर' मे ही डूब रहा मन सहते सहते ,

कुछ भी हाथ न आया मनवा कहते-कहते ।

क्यों ? 

क्या  जीवन  का  यथार्थ  है  सुनते जाना? 

या फ़िर मन के दुःखते भावों में पलते जाना? 

क्यों हूक सी उठती ह्रदय के कन्दर से आकर ?

ये पीर पटल के मानस से करती है उजागर ।

क्यों? 

क्या जीवन से उम्मीद निरर्थक है करना ?

या जीवन से अस्तित्व मिटाना ही जीना ?

अब विषाद भी आया है विकराल रूप धर,

सहना तो अब और हो गया बद से बद्तर।

क्यों? 

क्या जीवन का मतलब है मूक भाव में जाना ?

या फ़िर हो स्वतन्त्र बन पाखी अम्बर मे उड़ना ?

मन  की  कोमलता भंग  हो रही सहते सहते ,

आंखों  में सब भाव छुप गये ढहते- ढहते।

 रश्मि पाण्डेय, 

बिन्दकी, फतेहपुर

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