मेडिकल शिक्षा में आत्मनिर्भरता की ओर निरंतर बढ़ते कदम

 मेडिकल शिक्षा में आत्मनिर्भरता की ओर निरंतर बढ़ते कदम



न्यूज़।केंद्रीय स्वास्थ्य राज्यमंत्री भारती पवार ने संसद में कहा है कि विदेश में मेडिकल की पढ़ाई कर रहे जो भारतीय छात्र इंटर्नशिप पूरी नहीं कर सके देश में कर सकेंगे। मेडिकल छात्रों की दुर्दशा ने चिकित्सा शिक्षा प्रणाली से जुड़ी बुनियादी समस्याओं की ओर सबका ध्यान आकर्षित किया है।

युद्धग्रस्त यूक्रेन से सकुशल वतन लौटे मेडिकल छात्रों के भविष्य को लेकर व्याप्त अनिश्चितता के संदर्भ में केंद्र सरकार ने संसद में कहा है कि विदेश में मेडिकल की पढ़ाई कर रहे भारतीय छात्र, जो रूस-यूक्रेन युद्ध और कोरोना महामारी जैसी असामान्य स्थितियों के चलते इंटर्नशिप पूरी नहीं कर सके, अब देश में अपनी इंटर्नशिप पूरी कर सकेंगे। सरकार के इस कदम से उन हजारों छात्रों को राहत मिलेगी जो यूक्रेन संकट के कारण अपने पाठ्यक्रम को अधूरा छोड़ कर भारत आ गए हैं।

आंकड़ों के अनुसार, हर साल 25 हजार से अधिक छात्र मेडिकल की पढ़ाई के लिए विदेश जाते हैं। अहम सवाल यह है कि मेडिकल के ये विद्यार्थी डिग्री हासिल करने के लिए विदेश क्यों जाते हैं? दरअसल भारत में नेशनल एलिजिबिलिटी कम एंट्रेंस टेस्ट (नीट) की परीक्षा पास करना बहुत कठिन है। राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग के आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2021-22 में देश में कुल 596 मेडिकल कालेज थे, जिनमें नीट पास एमबीबीएस सीटों की संख्या 88,120 थी। जाहिर है देश में नीट के लिए सीटें भी उम्मीदवारों के अनुपात में कम हैं। जो छात्र नीट परीक्षा उत्तीर्ण नहीं कर पाते हैं वे रूस, यूक्रेन, कजाखस्तान या चीन में प्रवेश लेने पहुंच जाते हैं। इनमें अधिकांश वे छात्र होते हैं जिनके परिवार अमीर या उच्च मध्यम वर्ग के होते हैं। उन्हें डोनेशन कोटा से वहां आसानी से प्रवेश मिल जाता है। हालांकि यूरोप, इंग्लैंड और अमेरिका में एमबीबीएस में प्रवेश करना बहुत मुश्किल होता है। इस वजह से मेडिकल छात्र इन देशों में जाने के बजाय रूस, यूक्रेन या चीन में जाकर एमबीबीएस करते हैं।

परंपरागत एवं प्रोफेशनल शिक्षा के क्षेत्र में निजी शिक्षण संस्थानों का योगदान और दायरा बढ़ता जा रहा है। इस वजह से बड़ी तादाद में छात्र शिक्षण-प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे हैं। पर कई छात्र योग्यता होने के बावजूद इन संस्थानों में दाखिला नहीं ले पाते हैं, क्योंकि उनके अभिभावकों के पास भारी फीस चुकाने की क्षमता नहीं होती। बहुत से माता-पिता के लिए कर्ज लेकर शुल्क चुकाना भी संभव नहीं होता है। इन निजी मेडिकल कालेजों में साढ़े चार साल के कुल एमबीबीएस शिक्षा के लिए 50 लाख से एक करोड़ रुपये तक की फीस वसूली जाती है। इसमें दो राय नहीं कि निजी शिक्षण संस्थाओं को सरकारी कालेजों की तुलना में संचालित करना थोड़ा खर्चीला काम है, परंतु इसका यह मतलब भी नहीं कि छात्रों से मनमाना डोनेशन और अधिक शुल्क वसूला जाए। यूक्रेन संकट के बाद मेडिकल छात्रों का जीवन संकट में पड़ गया, तब यह सवाल उठने लगा है कि आखिर भारत में मेडिकल की शिक्षा इतनी महंगी क्यों है। इस पर विमर्श होना चाहिए और प्राइवेट मेडिकल कालेज की फीस नियंत्रित करने के लिए पहल होनी चाहिए।

कुल मिलाकर बात यह है कि यूक्रेन आदि देशों में चिकित्सा शिक्षा के लिए जाने का उद्देश्य अपेक्षाकृत सस्ती पढ़ाई है। अगर हम देश में मेडिकल सीटों को बढ़ाएं, तो विदेश में जाकर मेडिकल पढ़ाई करने वाले छात्रों की संख्या में कमी ला सकते हैं। साथ ही प्राइवेट मेडिकल कालेजों की फीस नियंत्रित करना भी जरूरी है। जब तक भारत में चिकित्सा शिक्षा प्रणाली छात्रों की जरूरत के अनुरूप नहीं बनेगी, उनका विदेश जाना जारी रहेगा। विदेश में जाकर मेडिकल छात्रों का पढ़ाई करना न केवल भारत को उसकी बहुमूल्य विदेशी मुद्रा से वंचित करता है, बल्कि कुशल श्रमशक्ति को भी बाहर निकाल देता है। ऐसा नहीं है कि पिछले कुछ वर्षों में देश में मेडिकल की सीटों में बढ़ोतरी नहीं हुई है। देश में एमबीबीएस सीटों को वर्ष 2014 के 54 हजार के मुकाबले वर्ष 2020 में 80 हजार किया जा चुका है। इसी अवधि के दौरान पीजी के लिए सीटों की संख्या 24 हजार से बढ़कर 54 हजार हो गई है। वर्ष 2021 में इन सीटों के लिए 16 लाख उम्मीदवारों ने नेशनल एलिजिबिलिटी कम एंट्रेंस टेस्ट दिया था। यह आंकड़ा डाक्टर बनने के इच्छुक छात्रों की संख्या और उन्हें प्रशिक्षित करने की भारत की क्षमता में अंतर को दर्शाता है।

मेडिकल शिक्षा के क्षेत्र में सरकार ने नेशनल मेडिकल कमीशन (एनएमसी) में बड़े बदलाव किए गए हैं। साथ ही दशकों पुरानी संस्था भारतीय चिकित्सा परिषद को खत्म कर चार स्वायत्त बोर्डों स्नातक और परास्नातक चिकित्सा शिक्षा बोर्ड, चिकित्सा आकलन और मानक बोर्ड व नैतिक एवं चिकित्सा पंजीकरण बोर्ड का गठन किया गया है, जो एनएमसी को दिन-प्रतिदिन के काम-काज में मदद करेंगे। सरकार स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे के विस्तार पर जोर दे रही है, जो अच्छी बात है कि पिछले दिनों देश में मेडिकल की पढ़ाई सस्ती करने के लिए केंद्र सरकार ने प्राइवेट मेडिकल कालेजों में आधी सीटों पर सरकारी मेडिकल कालेज के बराबर ही फीस लेने का बड़ा फैसला किया है। इसके अलावा आने वाले समय में सरकार हर तीन संसदीय क्षेत्रों पर एक मेडिकल कालेज की स्थापना करने जा रही है। साथ ही जिला और रेफरल अस्पतालों को अपग्रेड कर नए मेडिकल कालेज बनाने की योजना पर भी काम हो रहा हैै। पिछले दिनों केंद्र सरकार ने मेडिकल शिक्षा को बढ़ावा देने और स्वास्थ्य सेवा से जुड़ी आधारभूत सुविधा और मानव शक्ति की उपलब्धता सुनिश्चित करने के उद्देश्य से नए मेडिकल कालेजों की स्थापना की बात कही है जो स्वागतयोग्य है।

सरकार मेडिकल सीटें बढ़ाने पर भी विचार कर रही है। सीटों को बढ़ाने से स्वास्थ्य पेशेवरों की उपलब्धता बढ़ेगी और देश में मेडिकल कालेजों का वर्तमान भौगोलिक वितरण नियंत्रित होगा। साथ ही देश में किफायती चिकित्सा शिक्षा को भी प्रोत्साहन मिलेगा। यदि चिकित्सा समेत हर प्रकार की पढ़ाई की व्यवस्था देश में ही सुलभ होगी, तो प्रतिभा पलायन को भी रोका जा सकता है। गौरतलब है कि चिकित्सा शिक्षा से जुड़े सुधारों के साथ-साथ केंद्र सरकार ने आने वाले कुछ वर्षों में स्वास्थ्य पर सार्वजनिक व्यय को लगभग दो गुना बढ़ाकर जीडीपी का 2.5 प्रतिशत तक करने का लक्ष्य भी निर्धारित किया है, जो अच्छी बात है।

आगे की राह : देश में मेडिकल शिक्षा में विद्यमान चुनौतियों तथा चिकित्सकों की कमी को दूर करने के लिए सरकार को एक दीर्घकालिक सोच और प्रबल राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखाने की जरूरत है। इसके अलावा सरकार को सार्वजनिक-निजी- भागीदारी (पीपीपी) के अनुभवों से सीखना चाहिए। सनद रहे कि देश में मेडिकल शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार के लिए स्वास्थ्य व परिवार कल्याण संबंधी स्थायी कमेटी ने पीपीपी माडल पर आगे बढऩे की सिफारिश की है। चिकित्सा शिक्षा की गुणवत्ता प्रत्यक्ष रूप से संसाधनों, पाठ्यक्रम और प्रशिक्षण पर निर्भर करती है। अत: चिकित्सा शिक्षा के प्रत्येक पाठ्यक्रम को अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप बनाना होगा। हालांकि चिकित्सा शिक्षा का निजीकरण कोई पूर्ण हल नहीं है। जैसा कि कुछ निजी मेडिकल कालेज विदेशी संस्थानों की तुलना में अधिक शुल्क लेते हैं।

हमें यह भी समझने की आवश्यकता है कि देश में एमबीबीएस की सीटें बढ़ाने और मेडिकल कालेज स्थापित कर देने मात्र से चिकित्सा शिक्षा की समस्या नहीं सुलझ जाएगी। हमें शिक्षकों की कमी और अध्ययन की गुणवत्ता पर भी ध्यान देना होगा। दुनिया की सबसे बड़ी चिकित्सा शिक्षा प्रणाली भी भारत में है। इसके बावजूद हमारे मेडिकल कालेजों में नए शोध नहीं हो रहे हैं। देश में मेडिकल कालेज के लिए शिक्षकों के रूप में कुशल शिक्षकों की कमी है। साथ ही उनका चयन उनकी डिग्री के आधार पर किया जाता है, न कि उनके अनुभव के आधार पर। आज देश में चिकित्सा शिक्षा के पाठ्यक्रम और पढ़ाई के तोर-तरीकें में आमूलचूल परिवर्तन के साथ मेडिकल शिक्षा को उदार और लचीला बनाने की भी आवश्यकता है।

स्वास्थ्य क्षेत्र में वर्तमान प्रमुख चुनौतियां। हमारे देश में जनसंख्या के हिसाब से डाक्टरों यानी चिकित्सकों का अनुपात अत्यंत दयनीय स्थिति में है। संबंधित आंकड़ों के अनुसार देश में 10 लाख से भी कम डाक्टर सेवाएं दे रहे हैं। इस संख्या के हिसाब से प्रति एक हजार लोगों पर औसत उपलब्धता एक डाक्टर से भी कम है। इस प्रकार यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि हमारे देश में चिकित्सकों की संख्या काफी कम है। देश में डाक्टरों की उपलब्धता में भी काफी विषमता है, मसलन उत्तरी राज्यों में यह अनुपात आवश्यक मानदंड से बहुत कम है, जबकि तेलंगाना को छोड़कर शेष दक्षिणी राज्यों में डाक्टरों की पर्याप्त संख्या मौजूद है। इसके अलावा, ग्रामीण क्षेत्रों में भी स्वास्थ्य कर्मियों का नितांत अभाव है।

यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि देश में कई मेडिकल कालेजों का स्वामित्व उद्योगपतियों और राजनेताओं के पास है, जिन्हें मेडिकल स्कूल चलाने का कोई अनुभव नहीं है। चिकित्सा के क्षेत्र में कारपोरेट के आने से अब चिकित्सा सेवा नहीं, बल्कि व्यवसाय बन कर रह गया है। वर्तमान में चिकित्सा सेवा की बढ़ती लागत, कमीशनखोरी, चिकित्सकों द्वारा प्रलोभन में आकर बड़ी कंपनियों की महंगी दवाएं लिखना, अपने लाभ के लिए अनावश्यक रूप से जांच कराना आदि के कारण चिकित्सा पेशे के प्रति लोगों में विश्वास कम होने लगा है। चिंता की बात यह है कि भारतीय मेडिकल छात्र ऐसा प्रशिक्षण प्राप्त नहीं करते हैं, जो उन्हें स्वास्थ्य चिकित्सकों के रूप में सामाजिक रूप से जवाबदेह बनाता हो।

भारतीय चिकित्सा परिषद का मानना है कि देश में झोला छाप डाक्टरों (ऐसे डाक्टर जो न तो पंजीकृत हैं और न ही उनके पास समुचित डिग्री है) की संस्कृति हमारी स्वास्थ्य प्रणाली के लिए काफी खतरनाक है। परिषद के आंकड़े बताते हैं कि देश भर में 50 प्रतिशत से अधिक डाक्टर झोला छाप हैं। जहां एक ओर शहरी क्षेत्रों में योग्य चिकित्सकों की संख्या 58 प्रतिशत है, वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में यह आंकड़ा 19 प्रतिशत से भी कम है। भारत के मेडिकल पाठ्यक्रम में सामाजिक उत्तरदायित्व के भाव की बहुत बड़ी कमी है। चिकित्सा शिक्षा के बारे में यह धारणा है कि यह वैज्ञानिक और व्यावसायिक उत्कृष्टता की दौड़ में इतनी अधिक उलझी हुई है कि राजनीति जैसे सामाजिक मंच से इसे कोई सरोकार नहीं रहता। भारत लंबे समय से कुशल डाक्टरों की कमी की समस्या से जूझ रहा है। भारतीय डाक्टर अत्यधिक मरीजों की भीड़, अपर्याप्त कर्मचारियों, दवाओं और बुनियादी ढांचे की कमी जैसी चिंतनीय परिस्थितियों में कार्य कर रहे हैं। इन सभी के प्रभाव से उनकी कार्यकुशलता में कमी आती है और जीवन रक्षा के कार्य में वे अपना श्रेष्ठ नहीं दे पाते हैं।

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