क्रान्तिकारी गणेश शंकर विद्यार्थी*
*क्रान्तिकारी गणेश शंकर विद्यार्थी*
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*२५ मार्च,१९३१/ बलिदान दिवस*
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क्रांतिकारी पत्रकार गणेश शंकर ‘विद्यार्थी’ का जन्म १८९० ई० (आश्विन शुक्ल १४, रविवार, संवत् १९४७) को प्रयाग के अतरसुइया मौहल्ले में अपने नाना सूरज प्रसाद श्रीवास्तव के घर में हुआ था. इनके नाना सहायक जेलर थे. इनके पुरखे हथगांव (जिला फतेहपुर, उत्तर प्रदेश) के मूल निवासी थे, पर जीवन यापन के लिए इनके पिता मुंशी जयनारायण अध्यापन एवं ज्योतिष को अपनाकर जिला गुना (मध्य प्रदेश) के गंगवली कस्बे में बस गये।

प्रारम्भिक शिक्षा वहां के एंग्लो वर्नाक्युलर स्कूल से उत्तीर्ण कर गणेश ने अपने बड़े भाई के पास कानपुर आकर हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की. इसके बाद उन्होंने प्रयाग में इण्टर में प्रवेश लिया. उसी दौरान उनका विवाह हो गया, जिससे पढ़ाई छूट गयी. पर तब तक उन्हें लेखन एवं पत्रकारिता का शौक लग गया था, जो अन्त तक जारी रहा. विवाह के बाद घर चलाने के लिये धन की आवश्यकता थी, अतः वे फिर भाई साहब के पास कानपुर आ गये।

१९०८ में उन्हें कानपुर के करेंसी दफ्तर में ३० रु० महीने की नौकरी मिल गयी, पर एक वर्ष बाद अंग्रेज अधिकारी से झगड़ा हो जाने के कारण नौकरी छोड़कर विद्यार्थी जी पीपीएन हाई स्कूल में पढ़ाने लगे. यहां भी अधिक समय तक उनका मन नहीं लगा. अतः वे प्रयाग आ गये और कर्मयोगी, सरस्वती एवं अभ्युदय नामक पत्रों के सम्पादकीय विभाग में कार्य किया, पर यहां उनके स्वास्थ्य ने साथ नहीं दिया. अतः वे फिर कानपुर लौट गये और ०९ नवम्बर, १९१३ से साप्ताहिक पत्र *प्रताप* का प्रकाशन प्रारम्भ कर दिया।

*प्रताप* समाचार पत्र के कार्य में विद्यार्थी जी ने स्वयं को खपा दिया. वे उसके संयोजन, छपाई से लेकर वितरण तक के कार्य में स्वयं लगे रहते थे. पत्र में अंग्रेजी शासन के विरुद्ध भरपूर सामग्री होती थी. अतः दिन-प्रतिदिन *प्रताप* की लोकप्रियता बढ़ने लगी।

दूसरी ओर वह अंग्रेज शासकों की निगाह में भी खटकने लगा. २२ नवम्बर, १९२० से विद्यार्थी जी ने ‘प्रताप’ को दैनिक कर दिया. इससे प्रशासन बौखला गया. उसने विद्यार्थी जी को झूठे मुकदमों में फंसाकर जेल भेज दिया और भारी जुर्माना लगाकर उसका भुगतान करने को विवश किया।

इसके बावजूद भी विद्यार्थी जी का साहस कम नहीं हुआ. उनका स्वर प्रखर से प्रखरतम होता चला गया. कांग्रेस की ओर से स्वाधीनता के लिये जो भी कार्यक्रम दिये जाते थे, वे उसमें बढ़-चढ़कर भाग लेते थे. वे क्रान्तिकारियों के भी समर्थक थे. अतः उनके लिये रोटी और गोली से लेकर उनके परिवारों के भरण पोषण की भी चिन्ता करते थे. क्रान्तिवीर भगतसिंह ने भी कुछ समय तक विद्यार्थी जी के समाचार पत्र ‘प्रताप’ में काम किया था।

स्वतन्त्रता आन्दोलन में आरम्भ में तो मुसलमानों ने अच्छा सहयोग दिया, पर फिर उनका स्वर बदलने लगा. पाकिस्तान की मांग जोर पकड़ रही थी. २३ मार्च, १९३१ को भगत सिंह आदि को फांसी हुई. इसका समाचार फैलने पर अगले दिन कानपुर में लोगों ने विरोध जुलूस निकाले, पर न जाने क्यों कुछ लोग भड़क कर दंगा करने लगे. विद्यार्थी जी अपने जीवन भर की तपस्या को भंग होते देख बौखला गये. वे सीना खोलकर दंगाइयों के आगे कूद पड़े।

दंगाई तो मरने-मारने पर उतारू ही थे. उन्होंने विद्यार्थी जी के टुकड़े-टुकड़े कर दिये. यहां तक की उनकी साबुत लाश भी नहीं मिली. केवल एक बांह मिली, जिस पर लिखे नाम से उनकी पहचान हुई. वह २५ मार्च, १९३१ का दिन था, जब अन्ध मजहबवाद की बलिवेदी पर भारत माँ के सच्चे सपूत, पत्रकार गणेशशंकर ‘विद्यार्थी’ का बलिदान हुआ।
*पनपा "गोरखपुरी"*
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